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शिक्षा में सुधार की धुंधली राह

समाज के उस कमजोर वर्ग तथा उसके बच्चों पर पड़ रहा है जिनके सामने मुक्ति का एकमात्र रास्ता शिक्षा के दरवाजे से होकर गुजरता है। सरकारी स्कूलों के सिवाय उनके पास कोई विकल्प नहीं है। इस वर्ग की चिंता किसी को नहीं है। जो कुछ सुधार कर सकते हैं उनके बच्चे तो विशिष्टों के लिए बने प्राइवेट स्कूलों में अच्छी शिक्षा प्राप्त कर रहे हैं। शिक्षा के लिए जीडीपी के छह प्रतिशत का बजट प्रावधान करने के वायदे 1968 की शिक्षा नीति के बाद से लगातार होते रहे हैं, किंतु किसी ने भी उसे चार प्रतिशत के ऊपर नहीं पहुंचाया। जब भारत के राष्ट्रपति कुलपतियों से शिक्षा सुधार के लिए प्रयास करने का अनुरोध कर रहे थे, भारत के वित्तमंत्री मानव संसाधन विकास मंत्रालय के लिए आवंटित बजट प्रावधानों में कटौती को अंतिम रूप दे रहे थे। शिक्षा की लगातार बिगड़ती स्थिति को सुधारने के लिए 2012-13 में अध्यापक शिक्षा के लिए 500 करोड़ रुपये का प्रावधान किया गया था। मंत्रालय उत्साहपूर्वक अपनी योजनाएं बना रहा था। कटौती करके यह राशि 292 करोड़ कर दी गई है।
इससे यही संदेश गया कि सरकार सुधारों में नहीं खानापूर्ति में रुचि रखती है। सुधार केअनेक रास्ते अभी भी खुले हैं। उसके लिए साहसपूर्ण निर्णय लेने की आवश्यकता है। केंद्रीय विश्वविद्यालयों में कुलपति पद पर जो भी व्यक्ति नियुक्त हो, सरकार उस पर पूरा विश्वास प्रकट करे, उसे निर्णय लेने की स्वायत्तता दे, वह अच्छे तथा होनहार शोधकर्ता को कहीं से ला सके तथा सुविधाएं दे सके। सबसे महत्वपूर्ण निर्णय यह होगा कि कुलपतियों को शास्त्री भवन या बहादुरशाह जफर मार्ग के अनावश्यक चक्कर नहीं लगाने पड़ेंगे। पंडित मदन मोहन मालवीय ने जब बनारस हिंदू विश्वविद्यालय की स्थापना की थी तब अपने आचरण तथा उदाहरण के कारण श्रेष्ठ अध्यापक तथा शोधकर्ता वहां एकत्रित कर सके। जो विश्वविद्यालय के प्रति निष्ठा की परंपरा उन्होंने स्थापित की वह आज भी वहां अंशत: विद्यमान है। यदि चालीस केंद्रीय विश्वविद्यालय उस प्रक्रिया का अंशत: भी पालन कर सकें तो जो सुधार संभव होगा उसका प्रभाव न केवल बाकी विश्वविद्यालयों पर पड़ेगा, स्कूल शिक्षा में भी नई जान फूंकी जा सकेगी। प्रारंभ यहीं से हो सकता है। (लेखक जगमोहन सिंह राजपूत एनसीईआरटी के पूर्व निदेशक हैं) .
http://in.jagran.yahoo.com/epaper/index.php?location=8&edition=2013-03-09&pageno=6