दिल्ली :शिक्षा के मामले में कुल बजट का करीब दस फीसदी हिस्सा खर्च करने वाली दिल्ली सरकार निजी स्कूलों पर खास मेहरबान नजर आ रही है। चाहे प्री-नर्सरी मामले को जायज ठहराने की बात हो या फिर नर्सरी (सरकारी भाषा में प्री-प्राइमरी) में दाखिला को लेकर गाइडलाइन तैयार करने की। इनमें ऐसा कुछ भी नहीं है कि दिल्ली की आम जनता को इससे लाभ मिले या दाखिला प्रक्रिया की परेशानियों से मुक्ति मिले। प्री-नर्सरी मामले में सरकार के तर्क भी अजीबोगरीब हैं। सरकार का कहना है कि प्री-नर्सरी की अनिवार्यता को लेकर उसकी तरफ से कोई हिदायत नहीं है। सरकार चार साल में नर्सरी में दाखिला व पांच वर्ष में क्लास-वन में दाखिले को लेकर ही चल रही है। इस विषय में सरकार के यह कहने का भी कोई अर्थ समझ में नहीं आता है कि यदि कोई अभिभावक प्री-नर्सरी (एक तरह से प्ले स्कूल) में अपने बच्चों को दाखिला दिलाना चाहे तो सरकार उसे रोक तो नहीं सकती। कुछ स्कूलों ने बहुत पहले से प्री-नर्सरी का प्रचलन चला रखा है। सरकार प्री-नर्सरी को बढ़ावा नहीं दे रही है। सरकार का यह तर्क किसी को हजम नहीं हो रहा है।नर्सरी में तो दाखिला आसानी से होता ही नहीं है। अभिभावकों की मजबूरी है कि वे अपने बच्चों को प्री-नर्सरी में दाखिला दिलाएं, क्योंकि ज्यादातर स्कूल नर्सरी में सीटे फुल बताते हैं। पहले से दाखिला प्राप्त प्री-नर्सरी के बच्चों के कारण ऐसा होता है। जबकि दिल्ली सरकार ने हाईकोर्ट में यह शपथपत्र दे रखा है कि चार साल से प्री-नर्सरी में दाखिला होगा। सरकार प्री-नर्सरी पर अंकुश नहीं लगा सकती, ऐसा हो ही नहीं सकता। दरअसल प्री-नर्सरी की आड़ में होने वाले करोड़ों रुपये के खेल में सरकार के कुछ कारिंदे भी शामिल हैं। जिस कारण गांगुली कमेटी की रिपोर्ट व हाईकोर्ट में शपथ पत्र देने के बावजूद सरकार प्री-नर्सरी को रोकने के लिए वैसी सख्ती नहीं कर पा रही है, जिसकी उससे उम्मीद की जा रही है। यही कारण है कि प्री-नर्सरी जैसे स्कूल अब घर-घर में खुलने लगे हैं।कई रिपोर्टो व शोध में इस बात का भी खुलासा हुआ है कि प्री-नर्सरी, प्ले स्कूल आदि के कारण बचपन प्रभावित हो रहा है। बच्चों में कई प्रकार का विकार घर कर गया है। इन विकारों से उत्पन्न बीमारियों के कारण अस्पताल जाने वाले बच्चों की संख्या उन बच्चों से ज्यादा देखने को मिल रही है जो सीधे स्टैंडर्ड-फर्स्ट या नर्सरी में दाखिला ले रहे हैं। नर्सरी दाखिला को लेकर भी सरकार की तरफ से जो गाइडलाइन तैयार की गई है, वह एक तरह से पिछले वर्ष की कापी है।
अभिभावकों की उस मांग को भी सरकार ने एक तरह से खारिज कर दिया जिसके तहत अभिभावकों ने अपना पक्ष रखा था कि एलुमनी (यदि पिता उस स्कूल में पढ़ चुके हैं) व सिब्लिंग (यदि भाई-बहन उस स्कूल में पढ़ रहे हैं) के तहत प्वाइंट नहीं होने चाहिए। सरकारी आदेश में प्वाइंट सिस्टम पर पिछले वर्ष की तरह कुछ भी स्पष्ट नहीं किया गया है। जाहिर है निजी स्कूलों को पूरी छूट सरकार की तरफ से पिछले साल की तरह ही दी गई है। अभिभावकों को उसी तरह पिसना होगा जिस तरह लगातार कई वर्षो से वे नर्सरी दाखिले के समय परेशान हो रहे हैं।
..और यदि इसकी जड़ में जाएं तो सरकार शिक्षा के व्यवसायीकरण को रोकने में कभी भी ईमानदार कोशिश करती नहीं दिखी है। दिल्ली में पिछले 13 वर्षो से एक ही पार्टी की सरकार है, लेकिन इस दौरान ऐसा कभी भी नहीं दिखा कि स्कूलों की संख्या बढ़ाई गई हो। स्कूल बढ़ाने की बात जब भी आती है तो सरकार का एक ही पुराना बहाना सामने आता है कि उसके पास जमीन नहीं है। अलग-अलग विभागों से एनओसी लेने में सालों लगते हैं .. लेकिन यह परेशानी निजी स्कूल संचालन करने वालों को नहीं होती है। निजी स्कूल धड़ल्ले से खुल रहे हैं और सरकारी स्कूलों के लिए ग्रहण लग गया है। जबकि बजट का दस फीसदी हिस्सा सरकार शिक्षा पर खर्च कर रही है।http://in.jagran.yahoo.com/news/local/delhi/4_3_8644498.html